Wednesday, 11 December 2019

July 2019

मैं सपनों के टुकड़ों पर पलना चाहता हूँ
मैं संघर्ष की ज़मीन पर मचलना चाहता हूँ
मैं सफेद बर्फ हूँ उस आसमानी पहाड़ की
मगर मैं नदी में पिघलना चाहता हूँ

बहुत पत्थर हैं रास्ते में मैं जानता हूँ
मैं इस जंगल के हर इक मोड़ को पहचानता हूँ
जिस समंदर में घुलता है सूरज शाम को
मैं उस पानी में जाकर मिलना चाहता है

मैंने देखा है आज़ाद बादलों को ऊंचा उड़ते हुए
खुद को बर्फ बन पहाड़ के कंधों पर सड़ते हुए
जितना वक़्त लगता है पानी को बादल होने में
मैं बस उतनी ही देर तक खिलना चाहता हूँ

मुझे उस समंदर के पानी की भाप होना है
मुझे खुद के आसमान का मेहताब होना है


ख्वाहिशों को कभी कभी ज़रा छू लेता हूँ मैं
ख्वाहिशों को वक़्त डर डर के देता हूँ मैं

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