Wednesday, 11 December 2019

कोई आया था....
कोई आया था इक सूरज की तीली लेकर
मेरे पाँव में चुभाने
दिखाने उन आंखों को
जो पहले पेट से होकर जाती थी
उन आंखों को जो सपने देखने को
कभी बंद ही न हो पाई
और जब बंद हुई
तो सपनों में भी वही दिखा
वही नाले,
जो आँखे खोल कर दिखता रहा
सपनों में और हक़ीक़त में कोई फर्क ही न रहा
उन आंखों ने भूख को महसूस कम किया
और देखा ज़्यादा
उनके आसपास यही सब तो दिखता था

दो वक्त की रोटी के लिए
गहरे
एक भीड़ बन पीछे चल पड़ना





मुझको जगाने उन सपनों की दुनियां से
दिखाने उन सपनों को
जो कभी उन आखों में समा ही न सके
क्योंकि वो आंखे जब भी खुली थी
किसी न किसी के सपने को टूटते हुए ही देखा था


मुझको जगाने इक अंधेर भरे कमरे से
बाहर ले आने
वो आया और मेरे ज़हन में
इक ख्याल सा भरकर चला गया
मेरी सोच के इन पन्नो में
इक आग लगाकर चला गया
मेरा हाथ पकड़
सूरज की तरफ उंगली दिखाकर चला गया
उसने मेरे कान में ऐसा कुछ कहा
कि मैं उठकर उस सूरज की ओर चलता गया चलता गया चलता गया

शायद.....कोई आया था
कोई सच में आया था या फिर
मेरे ख्याल ही मुझको दिशा दे रहे थे
मुझको रास्ता दिखा रहे थे

कभी कभी मेरे ख्याल ही , मेरे साथ खेल खेलते हैं




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