सुल्फ़ियत
जब धुआँ मुझमें भरता है
वो तुझे मुझसे दूर नहीं करता
तुझपे इक रेशमी चादर बन
तुझे मुझमें सुला देता है
तेरे एहसास की वो महक बन
मुझमें घूमता है हल्के से झूमता है
और फिर मुझे तेरे पास लेके आता है
मैं तुझे सोते हुए चुपचाप देखता रहता हूँ
तेरे बालों को सहलाता हूँ, हल्के से
ताकि तू जाग न जाए
फिर से भाग न जाए
तू सोती हुई बड़ी ख़ूबसूरत लगती है
शाम की मीठी फुर्सत लगती है
तुझे छूने को, जी तो करता है
पर मैं जानता हूँ कि तू बस.... इक याद है
अगर तुझे छू लिया तो तू शोर करेगी
और मुझे फिर खुद को इस धूँए से भरना पड़ेगा
ताकि तू बेहोश हो जाए
सरफ़रोश हो जाए
हाँ मैं जानता हूँ कि ये पागलपन है
मगर इस जहाँ में पागलपन के बिना
क्या पाया जा सकता है ?
कुछ भी तो नहीं
कोई इस पागलपन के ज़रिए
खुद से मिलता है
और मैं तुमसे
ये धुआँ पागलपन के पास ले जाता है
इतना पास कि
मैं तुम्हें हर शाम देखता हूँ
बिस्तर के साथ वाले पलंग से...लेटे हुए
बोलते हुए मुझे....कि तुम पागल हो
ख्यालों का समंदर
इक पल को, गहरे पानी में डूब चला मैं
अगले ही पल इक लहर ने मुझे उछाल दिया
मैं तो मछलियों को कहानी सुनाने बस इक मछुआरा था
न जाने किसने मुझे शायरों की नाव में डाल दिया
इक बस्ता, इक कन्धा ,इक कुर्सी ,इक टेबल
और दो कदमों का रस्ता है
छोड़ो ये फ़िज़ूल की बातें
कुछ पल यूँही साथ बैठ जाओ
अगले लम्हें की खबर नहीं
कहाँ उम्र भर साथ निभाने की बात करते हो
लिखने को ज़ुरूरी है
इक मौसम, वो आलम
तन्हाई के कुछ लम्हे
इक किस्सा, कुछ यादें
चंद लफ्ज़ अनकहे
यूँ ही नहीं हम ख़ाक हुए हैं
हमारे साथ कई इत्तेफाक हुए हैं
न जाने उसका कौन सा सपना अधूरा रह गया
जो सबके सपने उठाता है कँधे पर आजकल
दुनिया की सबसे पुरानी
और common feeling है
पर जब जब आती है नई सी लगती है
इस नादान कंधे पर इक बस्ता लिए
दो पल का रस्ता रोज़ तय करते हैं
इक कुर्सी और टेबल पर जा बैठ
दो पल जीने के लिए दो पल रोज़ मरते हैं
दो पल की ज़िंदगी को रोज़ मरते हैं
दो पल जीने की कोशिश करते हैं
तुझे न खुद को खलना है
तुझे थोड़ा बदलना है
इन फिसलन भरी राहों मे
ज़रा सम्भलकर चलना है
मैं हवा को बड़ामस्त मनमौजी समझता था
पर एक दिन हवा मायूस मेरे पास आई
मैंने पूछा तुम उदास क्यों हो
तो उसने कहा
कभी कभी मैं सोचती हूँ
क्यों राह में फूल, पत्तों को
छुह कर जाना जरूरी है
हाथ मिलाना ज़रूरी है
हाल बताना ज़रूरी है
क्यों ये सब मुझे जानते हैं
क्यों ये हर रोज़ मेरे सामने आते हैं
कभी कभी मुझे बहुत अच्छा लगता है
जब कोई चुपचाप पास से गुज़र जाता है
न किसी से आँख मिलने की फिक्र
न किसी के रूठ जाने का झँझट
बस चुपचाप सुकून से मौज में चलते रहो
कभी कभी
इन चेहरों से दूर जाने को दिल चाहता है
कभी कभी अकेले हो जाने को दिल चाहता है
इस बुतों से भरी फैक्ट्री से एक दिन
छुट्टी हो जाने को दिल चाहता है
बस मैं हूँ और इक सुनसान राह हो
न किसी का बोझ हो न कोई चाह हो
बिन पीछे देखे बस चलता ही जाऊँ
न मुझसे किसी का भला हो न गुनाह हो
इक बेमतलब शायरी सा मैं
इक गुमनाम डायरी सा मैं
ऐसे लफ्ज़ की तालाश में हूँ
जिसके आगे मैं कुछ न रहूँ
मेरा वजूद पानी पर लिखे मेरे नाम सा हो जाए
जिसको सुन मेरी कलम जलन से ख़ाक हो जाए
ढूँढ रहा हूँ मैं
तेरे नाम सा इक लफ्ज़
गुमनाम सा इक लफ्ज़
जो मेरी कलम से बहते बहते ग़ुम सा हो जाता है
बिल्कुल तुम सा हो जाता है
तू लगती है मुझे यहीं कहीं
जहाँ का पता है बस यहीं कहीं, वहीँ
(जहाँ का पता नहीं मेरे पास वहीँ
जहाँ का रस्ता न मालूम मुझे वहीँ )9
महसूस तो करता हूँ तुझे मैं
बस छू नहीं पाता
ख़्याल तो है तेरा मेरे पास कब से
बस तू नहीं पाता
मेरी मंज़िल को जाते रस्ते का राही है तू
मेरे जैसा ही उमरों से गुमराही है तू
बाहर से रंगों से भरी हुई,अंदर से खाली सुराही है तू
जब कभी कोई गीत मिलता है
बिल्कुल तुझ सा गीत
मुझमें इक फूल खिलता है
बिल्कुल तुझ सा फूल
मैं खुश हो जाता हूँ झूम उठता हूँ
बस कुछ पल के लिए सही पर तू मेरे पास तो आता है
तू नहीं पर तेरा एहसास तो आता है
तुझे ढूंढती हुई कई कलमें आयी और गयी
पर मैंने दरवाज़ नहीं खोला
मेरे पास बस इक तेरा एहसास ही तो है
वो भी मुझसे छीन गया, औरों में बँट गया
तो मेरे पास क्या रहेगा
जब कोई और तुझे महसूस करेगा
मेरे सीने में इक जलन सी उठेगी
मैं बेकाबू सा हो जाऊंगा
मैं ख़ालीपन के शोर सा हो जाऊंगा
मैं कुछ और सा हो जाऊंगा
और ये सब बस मुझे पता है
और किसी को नहीं
ये सब तो तू भी नहीं जानती
और न जान पाएगी
मैं तो तेरा इंतज़ार कर लूंगा
खुद को बेकार कर लूंगा
मगर कोई और है जो मुझ सा नहीं है
वो आएगा और मुझे ले जायेगा
और मैं उसे रोक भी नहीं पाउँगा
तुझे ढूंढती कई नज़्में आयी और गयी
मगर तू नहीं आया
और मैंने उन्हें माऊस हो जला दिया
तुझे ढूंढती कई नज़्में आयी और गयी
मगर तू मुझसे बाहर नहीं आया
और मैंने उन्हें मायूस हो जला दिया
कोई भी खुश नही
समंदर में रहते हुए भी बादल बन जाने की ख्वाहिश
बादल बन जाने पर भी समंदर में समाने की ख्वाहिश
चाहे
ਜਿੰਦ ਸਾਡੀ ਚੋਂ ਵਾਹ ਚੱਲੀ ਤੋਂ
ਡੇਕਾਂ ਦੇ ਫੁੱਲ ਕਿਰਦੇ ਨੇ
खुश रहना कभी कभी उदास सा लगता है
न जाने क्यूँ ग़म कभी कभी खास सा लगता है
आजतक हम बस डर डर के जीते आएं है
उन्हें तो ग़म का गीत भी नमाज़ सा लगता है
बेज़ार सुख तो हाथ छोड़ने में दो पल नहीं लगाता
मग़र, ग़म तो हमारा हमराज़ सा लगता है
क्यूँ ये मुस्कुराहट होठों पे घर बनाकर बैठी है
लगता है ग़म हमसे कुछ नाराज़ सा लगता है
H
चाहे तेरे किए को याद कर ये दिल सहम जाता है
मगर न जाने मुझे तुझपे क्यूँ रहम आ जाता है
[05/08, 12:29 AM] GB🐢: किसी को पाने की बस इक ख्वाहिश ही होती है
असलियत को तो कोई देखना भी नहीं चाहता
जब तक कोई पास नहीं होता बारिश सा लगता है
और जब वो पास आने लगता है पानी हो जाता है
जो मेरा नहीं वो बारिश है
और जो मेरा है वो पानी है
जो आसमान में है वो ख़्वाब हैं
जो ज़मीं पर है वो है
जो तुझमें है वो
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